Monday, April 30, 2012

बाबू - २

(पिछली किस्त से आगे)


बाबू को टैक्सी पर लाद-फाँदकर हबड़ा स्टेशन. जीजा अपने आफ़िस का एक सहयोगी साथ ले आए थे. रिज़र्वेशन न था. शाम की एक ट्रेन पर भीड़ के मारे चढ़ ही न पाए. उसके बाद वाली गाड़ी पर, दो-तीन कुलियों की मदद से नीचे की एक बर्थ पर बाबू को खिड़की के सहारे अधलेटा कर कलकत्ता से रवाना हुए.

बाबू कभी होश में, कभी बेहोश. सीधे बैठने की कोशिश करते मगर फिर लुढ़क जाते. माँ ने अपनी एक धोती बाबू की जाँघों के बीच में भर दी थी. बाबू के आगे माँ और मैं पारी-पारी से उन्हें आगे गिरने से बचाने के लिए बैठते.

जैसे शिमला में बाबू का शव खड्ड में ले जाकर जलाने के बरसों पहले मैंने उस स्थान को सपने में देखा था, इस कलकत्ता से इलाहाबाद की बड़ी लंबी आतंकपूर्ण यात्रा की भयावनी छाया भी उसके बरसों बाद मुझे एक स्वप्न में दिखलाई दी थी -


मैं पिता को साथ लेकर घर लौट रहा हूँ. यात्रा के बीच रात होती है. पिता ऊपर की बर्थ पर. रात में उठकर पेशाब करने के बाद लौटता हूँ तो पाता हूँ, उनका मुँह खुला, ठोढ़ी ऊपर उठी हुई है. पता चलता है, सोते-सोते उनकी मृत्यु हो चुकी है. अधिकतर यात्री सो रहे हैं. अगले, किसी छोटे स्टेशन पर गाड़ी ठहरती है. मैं ख़ाली हाथ डिब्बे के नीचे उतर जाता हूँ. कुछ ही देर बाद वह ट्रेन सीटी देकर चल देती है.


खुले हुए दिन में मैं हबड़ा स्टेषन के यार्ड में खड़े तमाम डिब्बों में से एक-एक में जाकर उस एक डिब्बे को तलाश रहा हूँ, जिसकी ऊपरवाली बर्थ पर आज चौथे रोज़ भी मेरे पिता का शव पड़ा होगा!


राम-राम करते हुए अगले रोज़ तीसरे पहर इलाहाबाद पहुँचे. ताँगे पर लादकर घर.


डॉ. कृष्णाराम झा घर आए थे, देखने. इन्हें अस्पताल में भरती कराइए, उन्होंने कहा. आगरा किसी तरह पहुँच सकें तो वहाँ गोकुल मामा हैं - फिर तो यमराज की भी एक न चलेगी! मोहल्ले में फ़ोन किसी के यहाँ नहीं. रानीमंडी के डाकघर से आगरा में मामा के यहाँ फ़ोन करने गए. माँ पूरा हाल कह भी न पाईं, बीच में उनका गला रुँध गया.


"धीरज से काम लो. हम कामता को भेजते हैं."


तीसरे रोज़ कामता भैया इलाहाबाद आए. वह स्वयं भी डाक्टर थे. साथ में दवा ले आए थे. इलाहाबाद से आगरा तक एक कूपे रिज़र्व करा चुके थे. तड़के की ट्रेन से रवाना होकर दोपहर के बाद आगरा पहुँचे. स्टेशन से सीधे मेडिकल कालेज के अस्पताल - मामा ने वहाँ एक कमरा रिज़र्व करा रखा था.


मामा मेडिकल कालेज में प्रिंसिपल थे. दिन भर के क्लास पूरे कर, शाम के वक़्त आए, बाबू को देखने. पूरी जाँच करने के बाद मामा मुस्कराते हुए बोले, "मुकुंदजी, आपकी सारी बात मैं मानूँगा; मैं डाक्टर हूँ, इस लिए मेरी सलाह पर आपको पूरी तरह से चलना होगा."


माँ को उन्होंने बाबू को खिलाए जाने वाली चीज़ें बताईं, उनकी मात्रा भी. तली हुई चीज़ एक भी नहीं. उबला आलू, दही और हल्का नमक-ज़ीरा - और मामा की दी हुई दवाएँ.


"इस पर अमल हो, यह तुम्हारी ज़िम्मेदारी है" सख़्त लहजे में उन्होंने माँ से कहा.


दोनों के अलग-अलग फ़ोटो मैंने अपने कोडक बाक्स कैमरे से लिए थे. उनके चेहरे पर के भाव मेरे मन पर अमिट रह गए थे, इस लिए फ़ोटो प्रिंट कभी न कराया - आज उन्हीं दुखद चेहरों को प्रिंट में देख रहा हूँ, पहली बार - तब से 55 साल बाद.


(जारी)

2 comments:

मुनीश ( munish ) said...

मालवीय जी ने सच्चे अर्थों में समाज की सेवा की , समाज की सेवा घर फूँक कर ही होती है जो यहाँ फुँका हुआ दिख रहा है । जो मनुष्य इस वृत्त को पढ़कर भी चुप रहता है,कुछ भी कहता नहीं वह एक दिन पागल हो जाएगा ।

मुनीश ( munish ) said...

...या फिर हो सकता है कि वह एक दिन प्रेत की तरह
प्यास से परेशान मंडलाता फिर यहाँ-वहाँ । पाठक टिप्पणी कर वरना ये वृत्तांत तुझे चैन से न जीने देगा , तेरे अवचेतन में परेशान किया करेगा तुझको ऐसे कि चैन ना पाएगा तू कभी ।